इश्क और इंकलाब- देशभक्ति कविता
- Deepak RS Sharma
- Jul 26, 2020
- 1 min read

इश्क और इंकलाब में चुनाव करना था,
दिल और देश का एक साथ बचाव करना था।
उसकी माँग सिंदूर मांग रही थी,
तब धरती खून मांग रही थी।
वो सजा जीवन के साज रही थी,
तब ज़मी मर मिटने का जुनून मांग रही थी।
ज़िन्दगी ऐसे दोराहे पर आ खड़ी थी,
कि दोनों ओर बाँहे खोले ज़िम्मेदारियाँ आ खड़ी थी।
उस वक़्त उस औरत ने मर्दानी जोश दिखाया था,
फ़र्ज़ भूल चुके सिपाही को होश में लाया था।
दिल में दर्द और आँखों में अंगार लिए,
गंगा से पावन गात पर अधूरा श्रृंगार लिए।
बिजली सी कौंध कर बोली वो,
ज्यों शेर सवार दुर्गा के माथे की रोली हो।
है आर्यपुत्र!
तुम्हारे कन्धे कैसे झुक गए?
वतन की राह पर चलने वाले कदम कैसे रुक गए?
यदि तुम्हारे पाँव की बेड़ी मुझसे जुड़ा हुआ नाता है,
यदि तुम्हारे सीने की आग मेरा आँसू बुझा जाता है।
तो देख उतार फेंका ये गहना आज इस अर्धांगिनी ने,
वतन को सौंप दिया है पति आज इस वीरांगिनी ने।
वतन की ज़िम्मेदारी तुम्हारे कंधों पे,
परिवार की ज़िम्मेदारी मैं लेती हूँ।
सीता,पद्मिनी, लक्ष्मीबाई को साक्षी मानकर कहती हूँ।
कि युद्ध भूमि से तेरा शव वापिस लौटा तो शिकवा कोई नहीं होगा,
पर रणक्षेत्र से पीठ दिखकर ज़िन्दा लौटा तो सही नहीं होगा।
जाओ आर्य वतन की रक्षा में लग जाओ,
मातृभूमि के चरणों में अपना पुत्रधर्म तुम निभाओ।
हम फिर से जन्म लेंगे और दुनिया में आएंगे,
इस जन्म में नहीं तो उस जन्म में इक दूजे के हो जाएंगे।।
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